79. आखिरकार मैं शांति से अपना कर्तव्य स्वीकार सकती हूँ
नवंबर 2023 में मुझे प्रचारक चुना गया और दो कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी दी गई। जब मुझे नतीजे का पता चला तो मैं काफी हैरान और थोड़ी घबराई हुई थी। मैंने सोचा, “प्रचारकों का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक और उनकी जिम्मेदारी बहुत भारी होती है। मैं पहले भी प्रचारक रह चुकी हूँ, लेकिन चूँकि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया और रुतबे के फायदों में लिप्त रही और कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों के कोई नतीजे नहीं निकले, इसलिए मुझे बरखास्त कर दिया गया। अब हर जगह सीसीपी द्वारा गिरफ्तारी की बड़ी लहरों का सामना करना पड़ रहा है और माहौल बहुत प्रतिकूल है। अगर मैं कार्य की व्यवस्था अनुचित ढंग से करती हूँ और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाती हूँ तो निश्चित रूप से मुझे जवाबदेह ठहराया जाएगा। मुझे बरखास्त भी किया जा सकता है। अगर मैं बहुत ज्यादा बुराई करती हूँ और मुझे बेनकाब करके हटा दिया जाता है तो मैं उद्धार का अपना मौका खो दूँगी। उस स्थिति में क्या परमेश्वर में इतने वर्षों के विश्वास से मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा—जैसे मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हो गए और अंत में कुछ हासिल नहीं हुआ? इससे तो बेहतर है कि मैं अगुआ के रूप में सिर्फ एक कलीसिया की जिम्मेदारी लूँ। इस तरह मुझ पर उतना दबाव नहीं होगा।” मैंने उच्च अगुआओं को एक पत्र लिखने की योजना बनाई, ताकि मैं यह समझा सकूँ कि मैं चीजों को समझने में धीमी हूँ और उन्हें कोई दूसरा उम्मीदवार ढूँढ़ लेना चाहिए, जिससे कलीसिया के कार्य और मेरे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में बाधा न पड़े। लेकिन फिर मैंने सोचा, “हर दिन मैं जिन लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करती हूँ, उन पर परमेश्वर संप्रभु है और वही उन्हें व्यवस्थित करता है। पहले मैं इस कर्तव्य को निभाने में असफल रही थी। क्या यह हो सकता है कि परमेश्वर मुझे यह कर्तव्य दोबारा देकर पश्चात्ताप का मौका दे रहा है? इसके अलावा, बहुत से भाई-बहन गिरफ्तार कर लिए गए हैं और कलीसिया के कार्य के लिए लोगों की जरूरत है। मैं इस समय अपने जमीर के खिलाफ जाकर इस कर्तव्य से इनकार नहीं कर सकती। यह परमेश्वर को बहुत दुख पहुँचाएगा।” मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती थी, लेकिन मुझे यह डर था कि अगर मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभाया तो मुझे जवाबदेह ठहराया जाएगा। मैंने भीतर बहुत अंतर्द्वंद्व महसूस किया और उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई, मानो मेरा दिल किसी भारी पत्थर के नीचे कुचला जा रहा था।
अगली सुबह मैंने अपनी साझीदार बहन वांग नान से खुलकर बात की और अपनी मनोदशा के बारे में उसके साथ खोज की। उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी अपने मन में ऐसी चीजें पाले रहते हैं, जिनमें से सब परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमियाँ, विरोध, आलोचना और प्रतिरोध होता है। जो भी हो उन्हें परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। परमेश्वर के वचनों की टोह लेते हुए परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार की टोह लेते हुए वे ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। मसीह-विरोधी इन बातों को दिल में दबाकर खुद को चेताते हैं : ‘सावधानी ही सुरक्षा की जननी है; अपने को छिपाकर चलना ही सबसे अच्छा है; जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है; और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे! चाहे जब भी हो, कभी भी अपना सिर बाहर निकालने वाले पक्षी की तरह मत बनो, कभी भी बहुत ऊपर मत चढ़ो; जितना अधिक ऊपर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे।’ वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। परमेश्वर ने उजागर किया कि मसीह-विरोधी यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे परमेश्वर की धार्मिकता में विश्वास नहीं करते और इससे भी कम वे यह मानते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है। वे परमेश्वर की पहचान और सार को तौलने और सीमित करने के लिए अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में संदेहों से भरे रहते हैं। वे परमेश्वर की विश्वसनीयता और धार्मिकता को नकारते हैं और मानते हैं कि परमेश्वर निष्पक्ष और धार्मिक नहीं है। यह परमेश्वर की ईशनिंदा है। जब मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से अपनी तुलना की तो मैंने देखा कि मैंने जो स्वभाव प्रकट किया था, वह एक मसीह-विरोधी के स्वभाव के समान था। इस चुनाव में मुझे प्रचारक के रूप में चुना गया था, लेकिन मेरा हृदय परमेश्वर के प्रति सतर्कता और संदेह से भरा था। मुझे चिंता थी कि चूँकि मेरा कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा होगा और जिम्मेदारी बहुत भारी होगी, अगर मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा की तो मुझे न केवल बरखास्त किया जाएगा, बल्कि हटाए जाने का भी खतरा होगा। मैंने परमेश्वर के कार्य को देखने के लिए अपने दिमाग, धारणाओं और कल्पनाओं का सहारा लिया, यह भ्रामक धारणा बना ली कि अगर कोई अपने कर्तव्य में बड़ी जिम्मेदारी उठाता है तो वह जल्दी बेनकाब हो जाएगा और इस तरह मैं अपने कर्तव्य से इनकार करने के बहाने ढूँढ़ने लगी। मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझ पाई और परमेश्वर के घर को दुनिया के जैसा ही समझा, जिसमें निष्पक्षता और धार्मिकता का अभाव है। यह परमेश्वर की ईशनिंदा है। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर का घर सिद्धांतों के अनुसार लोगों को बरखास्त करता और हटाता है। यह ऐसा नहीं है कि अगर कोई कार्य ठीक से न करे तो उसे हटा ही दिया जाएगा—यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कुछ लोगों को इसलिए बरखास्त किया जाता है क्योंकि उनके कर्तव्य में समस्याएँ और विचलन दिखते हैं, कई बार संगति और मदद किए जाने के बावजूद वे चीजों में बदलाव नहीं लाते। यह ठीक वैसा ही था जब मैं पहले प्रचारक थी और मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया। उस दौरान अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने मेरे साथ संगति की और मेरी मदद की, लेकिन मैं कभी नहीं बदली और कार्य में गड़बड़ी पैदा की, इसलिए मुझे बरखास्त कर दिया गया। लेकिन बरखास्त किया जाना हटाए जाने के समान नहीं होता। जब मैंने आत्मचिंतन किया और थोड़ा पश्चात्ताप और परिवर्तन किया तो कलीसिया ने फिर से मेरे लिए एक उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था की। मैंने देखा कि बरखास्त किया जाना परमेश्वर द्वारा मुझे बचाने का एक तरीका था। कुछ लोगों की काबिलियत बहुत कम होती है और वे कुछ कार्यों को करने के योग्य नहीं होते। ऐसी स्थिति में उन्हें फिर से कोई उपयुक्त कर्तव्य सौंपा जा सकता है, जो उनके जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य दोनों के लिए लाभकारी होता है। लेकिन बुरे लोग और मसीह-विरोधी लगातार अपने कर्तव्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करते हैं। उनके साथ कितनी ही बार संगति की जाए, वे कभी बदलाव नहीं लाते; वे हठधर्मी रूप से पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं और बहुत से बुरे कर्म करते हैं। तब उन्हें कलीसिया से बाहर निकालना या निष्कासित करना जरूरी हो जाता है। परमेश्वर का घर सिद्धांतों के अनुसार लोगों से पेश आता है। परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है और धार्मिकता का शासन है। मुझे लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना था। इस बार परमेश्वर ने मुझे प्रचारक का कर्तव्य फिर से निभाने का जो अनुग्रह दिया, वह मेरे लिए पश्चात्ताप करने और बदलने का एक अवसर था। यह परमेश्वर का प्रेम था, मुझे परमेश्वर के खिलाफ सतर्क नहीं रहना चाहिए और न ही परमेश्वर को गलत समझना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, चीजों को बदलने के लिए तैयार हुई और अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज की।
जब मैं प्रचारक का कर्तव्य सँभालने की तैयारी कर रही थी तो मेरा दिल अब भी कुछ हद तक बेचैन था। संयोगवश बहन लियू शिन भी पहले इसी मनोदशा में रह चुकी थी, इसलिए उसने मेरे लिए कई अनुभवजन्य गवाही लेख खोजकर पढ़ने को दिए और उनमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों का एक अंश मेरे लिए बहुत मददगार सिद्ध हुआ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं लेना पड़ेगा, और यदि लेना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी सी छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार का प्रचार करते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी लेने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी और उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी रुकावटों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक हितों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएँगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उन्हें अपमानित होने और निंदा का और आलोचना का डर होता है और वे सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करते। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर कहता है कि जो लोग अपने कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे स्वार्थी, नीच, विश्वासघाती और धोखेबाज होते हैं। ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं होती; वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते। उन्हें परमेश्वर द्वारा केवल ठुकराया और हटा दिया जाता है। मैंने अपने हाल के व्यवहार को याद किया। मैंने देखा कि मैं उसी प्रकार की इंसान हूँ जिसे परमेश्वर ने उजागर किया है, जिसे पेड़ से गिरे पत्तों से भी सिर फूटने का डर रहता है। जब मुझे प्रचारक के रूप में चुना गया, भले ही मैं जानती थी कि परिवेश प्रतिकूल है और विभिन्न कार्यों में लोगों की कमी है, फिर भी मैं स्वार्थी और नीच थी और अपनी सुरक्षा कर रही थी। मैंने कलीसिया के कार्य और अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की रक्षा का झंडा लहराया, लेकिन इस बहाने से चुपचाप अपने कर्तव्य से बचने की कोशिश की और यहाँ तक कि यह भी मान लिया कि ऐसा करना मेरी बुद्धिमानी है। असल में मेरा हर विचार केवल अपने स्वार्थ के लिए था। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव सचमुच विश्वासघाती और धोखेबाज था! मैं शैतानी जहरों के अनुसार जी रही थी, जैसे “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” और “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” मैं जो कुछ भी करती थी, वह खुद के लिए करती थी। मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी, लेकिन मेरे दिल में परमेश्वर नहीं था—मैं बिल्कुल छद्म-विश्वासियों जैसी थी। अगर मैं नहीं बदली तो खुद को बरबाद कर दूँगी। वे भाई-बहन जो सच में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होते हैं, वे परमेश्वर के इरादे का ध्यान रखते हैं; बाहरी परिवेश कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो, वे राज्य के सुसमाचार को फैलाने के लिए भारी बोझ उठाने को तैयार रहते हैं, सकारात्मकता और सक्रियता से अपने कर्तव्य को निभाते हैं, व्यक्तिगत लाभ-हानि की परवाह नहीं करते हैं। कुछ भाई-बहन तो कई कार्य करते हैं : एक व्यक्ति कई कर्तव्य निभाता है, कष्ट उठाता है और कीमत चुकाता है और आखिरकार अच्छे नतीजे प्राप्त करता है। लेकिन जब मैंने अपनी तुलना की तो मैंने उस निर्णायक समय पर, जब परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लोगों की जरूरत थी, अपने कर्तव्य से इनकार करना चाहा। मुझमें जरा भी जमीर नहीं था! मैंने यह भी याद किया कि पहले कैसे रुतबे के लाभों में लिप्त रहने और वास्तविक कार्य न करने के कारण मुझे अपने कर्तव्य से बरखास्त किया गया था। परमेश्वर ने मेरे अपराधों के अनुसार मुझसे व्यवहार नहीं किया, बल्कि मुझे पश्चात्ताप करने का एक अवसर भी दिया। मुझे इसे और भी अधिक सँजोना चाहिए और इस कर्तव्य को स्वीकार करके यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। जब मैंने परमेश्वर का इरादा समझा तो मैं अपने दिल की गहराई से इस कर्तव्य को स्वीकारने के लिए तैयार हो गई।
बाद में मैंने फिर परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की ताकि परमेश्वर से यह खोज सकूँ कि अपना कर्तव्य निभाने में मैं लगातार अपनी राह और बचाव की योजना बनाने के बारे में क्यों सोचती हूँ। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “यह कोई संयोग नहीं है कि मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं—वे निश्चित रूप से अपने इरादों और मकसद के साथ और आशीष पाने की इच्छा के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं। वे जो भी कर्तव्य करते हैं, उनका मकसद और रवैया बेशक आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और अच्छी संभावनाएँ और नियति से जुड़ा होता है जिसके बारे में वे दिन-रात सोचते हैं और चिंतित रहते हैं। वे उन कारोबारियों की तरह हैं जो अपने काम के अलावा किसी और चीज के बारे में बात नहीं करते। मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं वह सब शोहरत, लाभ और रुतबे से जुड़ा होता है—यह सब आशीष पाने और संभावनाओं और नियति से जुड़ा होता है। उनके दिल अंदर तक ऐसी चीजों से भरे हुए हैं; यही मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है। ठीक इसी तरह के प्रकृति सार के कारण दूसरे लोग स्पष्ट रूप से यह देख पाते हैं कि उनका अंतिम परिणाम हटा दिया जाना ही है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर में अपने विश्वास में आशीष पाने की मंशा रखते हैं और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास इसलिए नहीं रखते कि वे अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहते हैं या सत्य प्राप्त करना चाहते हैं। वे गलत मार्ग पर चल रहे होते हैं और उनका अंजाम हटा दिया जाना होता है। जब मैंने परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना की तो मैंने देखा कि मेरे अनुसरण के पीछे का परिप्रेक्ष्य मसीह-विरोधी के समान ही था। जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तब से अब तक मेरा केवल एक ही उद्देश्य रहा : आशीष पाना। मैंने सोचा कि कैसे पहले अच्छा परिणाम और मंजिल पाने के लिए, बचाए जाने और भविष्य में जीवित रहने के लिए मैं परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी, चाहे मेरा परिवार मुझे कैसे भी सताए, यहाँ तक कि मुझे अपना परिवार भी छोड़ना पड़े। एक बार मैं पुलिस द्वारा लगभग गिरफ्तार कर ली गई थी, लेकिन उसके बाद भी मैं पीछे नहीं हटी और पहले की तरह सक्रियता से अपना कर्तव्य निभाती रही। अब जब प्रचारक का कर्तव्य मुझे फिर से निभाने के लिए दिया जा रहा था तो मुझे डर था कि अगर मैंने यह अच्छे से नहीं किया तो मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और मुझे अच्छा परिणाम नहीं मिलेगा, इसलिए मैं खुद को बचाने के लिए इस कर्तव्य को ठुकराना चाहती थी। चाहे मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार होती या नहीं, पहली बात जो मैं सोचती थी, वह मेरे अपने फायदे थे और यह सब आशीष पाने के लिए था। मैंने देखा कि मेरी प्रकृति स्वार्थी और धोखेबाज थी, परमेश्वर में मेरा विश्वास वास्तव में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने और उसके साथ चालबाजी करने जैसा था। मैं परमेश्वर में अपने विश्वास में आशीष पाने का इरादा साथ लाई थी और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए साधारण रूप से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। मैं केवल तब थोड़ा-बहुत खुद को खपाती थी, जब उसमें कोई लाभ होता था। इस तरह कर्तव्य निभाना पूरी तरह लेन-देन पर आधारित था और इसमें कोई निष्ठा नहीं थी। परमेश्वर में अपने विश्वास में मैं जिसका भी अनुसरण कर रही थी, उसके पीछे का परिप्रेक्ष्य गलत था और मैं जिस रास्ते पर चल रही थी, वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के ठीक विपरीत था। अगर मैं इसी तरह चलती रही तो मुझे कैसे बचाया जा सकेगा? अगर मैं बदली नहीं तो आखिरकार परमेश्वर द्वारा हटा दी जाऊँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने समझा कि एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए पहले दिल में ईमानदारी होनी चाहिए और कर्तव्य केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए निभाया जाना चाहिए, न कि अपने बारे में सोचकर या अपने लिए योजना बनाकर। लेकिन जब मैंने अपना कर्तव्य किया तो हर कदम पर मैं अपने लिए योजनाएँ बनाती रही। मेरा दिल बहुत ही धोखेबाज था! मैंने नूह के बारे में सोचा। उसका दिल सरल और ईमानदार था। जब परमेश्वर ने उससे नाव बनाने का निर्देश दिया तो वह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशीलता दिखाते हुए परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर सका। वह आज्ञाकारी और समर्पित था और उसने आशीषों या आपदा के बारे में नहीं सोचा; आखिरकार उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार नाव बनाने का काम पूरा किया। भले ही मैं नूह से अपनी तुलना किए जाने लायक नहीं हूँ, फिर भी मुझे उसका अनुकरण करना चाहिए, आज्ञाकारी और समर्पित व्यक्ति बनना चाहिए, सरल और ईमानदार दिल से अपने कर्तव्य को स्वीकारना चाहिए, जिन कार्यों को मैं कर सकती हूँ, उन्हें पूरी मेहनत से करना चाहिए और ईमानदार व्यक्ति बनने की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। दो दिन बाद मैंने अगुआओं को उत्तर दिया कि मैं प्रचारक का कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ।
बाद में उच्च अगुआओं का एक पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि एक कलीसिया का कार्य गिरफ्तारी की एक बड़ी लहर के बाद ठप पड़ गया है और बाद के हालात को सँभालना जरूरी है। उन्होंने पूछा कि क्या मैं यह कार्य कर सकती हूँ। जब मैंने पत्र पढ़ा तो मेरा दिल उथल-पुथल से भर गया, “अगर मैं यह कार्य अच्छे से नहीं कर पाई तो सारी जिम्मेदारी मेरी ही होगी।” मुझे एहसास हुआ कि यह सोच गलत है और मैं अभी भी जिम्मेदारी लेने से डर रही हूँ। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हें सकारात्मक और सक्रिय होकर सहयोग करना होगा, जो कर्तव्य तुम्हें निभाना है उसे अच्छी तरह करने के लिए भरपूर प्रयास करना होगा, और अपनी जिम्मेदारियों और उत्तरदायित्वों को पूरा करना होगा। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अनुसरण करने से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया जा सकता है)। “यदि तुम सच में दायित्व वहन करने की भावना रखते हो, कर्तव्य निर्वहन को निजी दायित्व समझते हो, और तुम्हें लगता है कि यदि तुम ऐसा नहीं समझते, तो तुम जीने योग्य नहीं हो, तुम पशु हो, अपना कर्तव्य ठीक से निभाकर ही तुम मनुष्य कहलाने योग्य हो और अपनी अंतरात्मा का सामना कर सकते हो—यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय दायित्व की ऐसी भावना रखते हो—तो तुम हर कार्य को निष्ठापूर्वक करने में सक्षम होगे, सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर पाओगे और इस तरह अच्छे से अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। अगर तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए मिशन, परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो त्याग किए हैं और उसे तुमसे जो अपेक्षाएँ हैं, उन सबके योग्य हो, तो इसी को वास्तव में प्रयास करना कहते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। मुझे सकारात्मक और सक्रिय रूप से अपना कर्तव्य निभाना था। उस कलीसिया का कार्य ठप पड़ गया था और उसके लिए विस्तृत योजना बनाने और व्यवस्थाएँ करने की जरूरत थी; बाद के हालात को सँभालने का कार्य भी जल्द से जल्द निपटाना जरूरी था। यह मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करूँ और अपने भाई-बहनों की सुरक्षा सुनिश्चित करूँ। अगर मैं अब भी अपने भविष्य के बारे में सोचती रही और जिम्मेदारी लेने के डर से अपना कर्तव्य न निभा पाई तो मैं इंसान कहलाने लायक नहीं रहूँगी।
बाद में, मैं बाद के हालात को सँभालने का कार्य करने के लिए उस कलीसिया में गई। उस समय मुझे बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, जो बात मुझे समझ नहीं आती थी, उसके लिए मैं परमेश्वर पर निर्भर हो गई, उच्च अगुआओं से मदद माँगी और अपने भाई-बहनों के साथ तालमेल से कार्य किया। बाद में, परमेश्वर की अगुआई से परमेश्वर के वचनों की किताबों को सुरक्षित रूप से स्थानांतरित कर दिया गया और मेरे भाई-बहनों ने अपनी-अपनी क्षमताओं के अनुसार कर्तव्य किया। भले ही सुसमाचार कार्य में अब भी कोई प्रगति नहीं हो रही थी, मैं उसमें अपनी पूरी ताकत लगा रही थी और अब मैं जिम्मेदारी लेने से डरती नहीं थी। मैं जानती थी कि यह मेरा कर्तव्य और मेरी जिम्मेदारी है और यही वह है जो मुझे करना चाहिए। यह सोचते ही मुझे भीतर से शांति और सुकून महसूस हुआ। मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अभी इस बात पर ध्यान केंद्रित मत करो कि तुम्हारी मंजिल या परिणाम क्या होगा या आगे क्या होगा और भविष्य में क्या छिपा है या क्या तुम विपत्ति से बचने और प्राण न गँवाने में सक्षम रहोगे—इन चीजों के बारे में मत सोचो, न इनके बारे में आग्रह करो। केवल परमेश्वर के वचनों और उसकी जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करो और सत्य के अनुसरण में लग जाओ और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाओ, परमेश्वर के इरादे पूरे करो और परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रतीक्षा और छह हजार वर्षों की आशा को निराश मत करो। परमेश्वर को थोड़ा दिलासा दो; उसे तुम्हारे अंदर आशा दिखाई दे और उसकी इच्छाएँ तुम में पूरी हों। मुझे बताओ, अगर तुम ऐसा करोगे तो क्या परमेश्वर तुम्हारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करेगा? बिल्कुल भी नहीं! और भले ही अंतिम परिणाम वैसे न हों जैसा तुमने चाहा था, एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें इस तथ्य से कैसे पेश आना चाहिए? तुम्हें बिना किसी व्यक्तिगत योजना के सभी चीजों में परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। क्या सृजित प्राणियों का यही नजरिया नहीं होना चाहिए? (यही होना चाहिए।) यह मानसिकता सही है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, मनुष्य को सत्य का अनुसरण क्यों करना चाहिए)। परमेश्वर के हृदयस्पर्शी वचन सुनकर मैंने लोगों को बचाने में परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को महसूस किया और मेरा दिल बहुत प्रभावित हुआ। परमेश्वर की छह हजार वर्षीय प्रबंधन योजना मानवजाति को बचाने के लिए ही है। परमेश्वर आशा करता है कि हम गंभीरता से सत्य का अनुसरण करें और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाएँ, एक सच्चे मानव के समान जिएँ, परमेश्वर के वचनों को मानें, परमेश्वर के प्रति समर्पित हों और परमेश्वर की आराधना करें। इसी तरह से परमेश्वर के दिल को सुकून मिलेगा। भविष्य में मेरा परिणाम चाहे जो भी हो, मुझे अभी मुख्य रूप से सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। परमेश्वर का धन्यवाद!